top of page

श्रीविद्याद्नि पीठम् के मूल तत्त्व
यह पीठ कोई संस्था नहीं — यह चेतना है। यह परंपरा  और  जागृति है।
श्रीविद्याद्नि पीठम् उस प्राचीन तेजस्विनी परंपरा की प्रतिनिधि है जहाँ आत्मा को उसकी पूर्णता में देखा जाता है, और प्रत्येक साधक को भीतर की देवी के साक्षात्कार हेतु प्रेरित किया जाता है। यहाँ साधना, सेवा बन जाती है; ध्यान, जीवन का स्वरूप बन जाता है; और स्त्री, केवल पूज्या नहीं, नेतृत्व की धारणा बन जाती है।
यह पीठ निम्न नव (९) मूल तत्त्वों पर आधारित है:
वर्ण और जाति में कोई भेद नहीं: हमारी साधना आत्मा की है — न कि शरीर की, न जन्म की। हम हर जीव को एक ही चेतना का अंश मानते हैं।
लिंगभेद से परे दृष्टि: पुरुष और स्त्री, दोनों ब्रह्म के रूप हैं। साधना का पथ दोनों के लिए समान है — श्रेष्ठता किसी लिंग में नहीं, केवल साधना के तेज में होती है।
भारतीय संस्कृति का शुद्ध आचरण: वेद, उपनिषद्, योग, आयुर्वेद, तंत्र — इन सबका सम्मिलन, और भारत की संस्कृति का जागरण हमारे जीवन का आधार है।
भगवती की पूजा भीतर की यात्रा है: देवी किसी मूर्ति तक सीमित नहीं। वह हृदय की गहराई में विराजमान है। साधना का आरंभ बाहर से होता है, पर उसकी पूर्णता भीतर होती है।
स्त्री साधकों को प्रोत्साहन: यह पीठ स्त्रियों को केवल साधना के लिए नहीं, नेतृत्व, शिक्षा, और परंपरा की वाहक बनाने के लिए समर्पित है।
तंत्र, आत्मज्ञान, ब्रह्मांडीय ज्ञान और वैश्विक कल्याण का पथ: हमारा मार्ग केवल निजी मुक्ति का नहीं — सम्पूर्ण विश्व की चेतना के कल्याण का है।
स्त्री पीठाधिपति परंपरा: इस पीठ में नेतृत्व स्त्री के हाथ में होता है, क्योंकि हम मानते हैं — जहाँ नारी पूज्य है, वहीं वास्तविक शक्ति जागती है।
जगन्मयी दृष्टि: हम हर वस्तु, हर संबंध, हर भाव में देवी को ही देखते हैं। संसार दैवी है, और जीवन एक महायज्ञ।
"स्वयं से मिलना ही हमारी दीक्षा है": साधना का सर्वोच्च लक्ष्य है — अपने भीतर के देवत्व से मिलना। जो स्वयं से जुड़ता है, वही सबमें देवी को देख पाता है।
श्रीविद्याद्नि पीठम् का प्रत्येक साधक इस मंत्र को जीता है:
"नाहं स्त्रीः न च नरः।
न वर्णः, न धर्मः, न जातिः।
अहं आत्मा — ब्रह्माण्डांशः।
देव्याः वंशः, चैतन्यरूपः।"
"न मैं स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ,
न वर्ण, न जाति, न धर्म हूँ।
मैं आत्मा हूँ — चैतन्य का स्पंदन हूँ।" 
ब्रह्म का अंश - देवी का वंश,
bottom of page